कानो में गर्म सीसे सा घुलता है
सालो से चला आ रहा रिवाज
साहू को तेली कहना
और कहना उसे
दोपहर से पहले देखना
अशुभ !
अजीब लगता है
आज भी
नाईं से
बुलौआ
बुलवाने का रिवाज !
आज भी मुझे
हैरत में डालता है
चाय की दुकान का
टुटा हुआ कप
जो चमारो के लिए
रखा जाता है
अलग !
झनझना जाता है
मस्तिष्क
जब गाँव का दलित
खड़ा हो जाता है
सवर्ण को देखकर
छोड़कर
खाट !
सुलग जाता है
तन बदन
जब
चोर चमार भंगी बसोड़
जैसी कहावते
चूहड़ा ढेढ़ और भजा
जैसे शब्द
पड़ते है कान में !
और मन कहता है
विषमतावादि धर्म
जाये भाड़ में !
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