Sunday, January 10, 2016

भारत की आर्थिक प्रगति का लाभ समाज के सभी वर्गों तक समान रूप में नही पहुचा है - अमृत्य सैन

सुप्रभात मित्रों, 
   अभी कुछ दिन पूर्व मैने नोबल पुरस्कार विजेता श्री अमृत्य सैन जी की पुस्तक unsertnet glory of India पढी।जिसमे भारत की आर्थिक प्रगति का विश्लेषण किया गया है । अमृत्य सैन द्वारा बताया गया है कि भारत की आर्थिक प्रगति का लाभ समाज के सभी वर्गों तक समान रूप में नही पहुचा है। यदि ऐसा हो गया होता तो समाज का एक बहुत बडा हिस्सा शिक्षा, चिकित्सा, पानी, मकान जैसी मूलभूत सुविधाओं से वंचित क्यों है।उन्होंने अपने अध्ययन में पाया कि सर्व शिक्षा अभियान के बाद भी प्राईमरी स्कूलों में केवल 87% बच्चे ही दाखिला ले पाते हैं।जबकि दक्षिण एशिया के छोटे से मुल्क नेपाल व भूटान में भी प्राईमरी स्कूलों में शत प्रतिशत बच्चे पढते हैं । जबकि भारत की अर्थ व्यवस्था इन देशो से  लगभग पचास गुना बडी है । हमारा गणतंत्र इस बात की पूरी पडताल क्यों नही करता कि 13% बचे हुए बच्चे आखिर प्राईमरी स्कूलों तक क्यों नहीं पहुंच पाते।हाई स्कूल तक शिक्षा पाने वाले बच्चों को संख्या घटकर 48% रह जाती है । ग्रेजुएशन तक पहुंचते पहुंचते यह संख्या 25% रह जाती है।दलितों मे स्थिति और ज्यादा खराब है।
  नीति बनाने वाले तर्क देते हैं कि गणतंत्र के प्रयासों मे कोई कमी नही है।सरकारी स्कूलों में निशुल्क शिक्षा, निशुल्क किताबें, निशुल्क वर्दी तथा मीड डे मील योजना के अंतर्गत निशुल्क भोजन भी दिया जाता है।यदि फिर भी बच्चे स्कूल तक नही पहुँच पा रहे हैं तो उसके लिए गणतंत्र का दोष नही है । लेकिन गणतंत्र की सोच का दायरा उस बच्चे की समस्याओं तक नही पहुँच रहा है । गणतंत्र यह भूल जाता है कि उस बच्चे को तीन समय सुबह, दोपहर, व शाम को भूख लगती है।जबकि हम उसे केवल दोपहर का ही भोजन दे रहे हैं । उसे शेष दो वक्त के भोजन की व्यवस्था के लिए अपने परिवार के साथ शिक्षा के अतिरिक्त कार्यो में लगाना पडता है।उच्च कक्षाओं तक जाते जाते शिक्षा का व्यय बढने के कारण वह बच्चा शिक्षा से विरत हो जाता है ।
     इस स्थिति को परिवर्तन करने के लिए यह आवश्यक है कि गणतंत्र यह सुनिश्चित करे कि आर्थिक प्रगति का लाभ समाज के सभी वर्गों तक समान रूप से पहुंचे।जैसा कि अमेरिका व चीन मे किया गया है 1914 मे अमेरिका में फोर्ड मोटर कंपनी के संस्थापक हैनरी फोर्ड ने अपने मजदूरों को पांच डालर रोजाना मजदूरी देकर चौंका दिया।उस समय अमरिका में मजदूरी दो डालर रोजाना थी।फोर्ड के इस फैसले ने औधोगिक विकास और उधोगपति मजदूर रिश्तों को हमेशा के लिए बदल डाला।एक ही झटके में फोर्ड ने बडे पैमाने पर कार और उसके लिए एक बाजार भी पैदा कर लिया।चीन में पिछले दो दशकों में 40 करोड चीनी नागरिकों को गरीबी से आजादी दिलाकर बाजार का हिस्सा बनाया गया।
इन दो घटनाओं मे एक ही बात काॅमन है वह यह है कि उधोगपति एक साथ दो काम करते हैं--- माल का उत्पादन और उस माल की खपत के लिए कंज्यूमर वर्ग का निर्माण।कंज्यूमर वर्ग जितना बडा होता जायेगा, उधोग द्वारा पैदा माल लागत उतनी ही घटती जायेगी।
        पूर्वी उत्तर प्रदेश के एक गांव में एक दलित परिवार मे शादी का तिलक समारोह था । दलित परिवार दलितों मे समृद्धि के पैमाने से वैभवमान था इस दलित परिवार ने समारोह का सारा काम शहर के प्रतिष्ठित कैटरर को सोंप दिया।भोजन को भी बफे सिस्टम में तब्दील कर दिया गया।गांव में पहली बार मेहमानों के लिए मिनरल वाटर की बोतलें सर्व की गयी।वेज, नोन वेज भोजन के साथ बार भी सजा दी गई है । तिलक के उत्सव का यह आयोजन जल्द ही पुरे इलाके में चर्चा का विषय बन गया। चर्चा के केंद्र में यह सवाल भी रहा कि कैटरर की सेवा एक दलित परिवार ने ही सबसे पहले क्यों ली।अपेक्षाकृत अधिक सम्पन्न सवर्ण या ओ बी सी परिवार इस मामले पिछड क्यों गये।पांच वर्ष बाद पूर्वी यू पी के उस इलाके में गहरे बदलाव आ चुके हैं।साधन सम्पन्न परिवार अब शादी समारोह आदि के लिए सारा काम कैटरर को देने लगे हैं कोल ड्रिंक्स और मिनरल वाटर की बोतलें सर्व करना आम बाबात हो गयी है । सर्विस सेक्टर का दायरा गांव तक बढ गया है । इसमे आरक्षण द्वारा पैदा हुए दलित अफसर व कर्मचारी निर्णायक योगदान दे रहे हैं।नौकरी शुदा दलित परिवार का उपभोग या खर्च का पैटर्न प्राईवेट सेक्टर के लिए वरदान साबित हो सकता है ।
    भारत में हाल बिल्कुल उल्टा है । भारतीय उधोगपति केवल माल पैदा करने पर जोर देते हैं।कंज्यूमर पैदा करने का तो वे असल मे विरोध करते हैं।गरीबी मिटाने या सामाजिक न्याय के नाम पर तो वे भडक उठते हैं।नतीजा यह होता है कि भारतीय कंपनियों का घरेलू बाजार छोटा रह गया है । जबकि आबादी लगभग चीन के ही बराबर है।इइसका खामियाजा पुरे देश को भुगतना पड रहा है । भारतीय कंपनियां विश्व बाजार में होड इसलिए नही कर पा रही है । कि उनका माल मंहगा है मंहगा इसलिए है कि भारतीय कंपनियों का घरेलू बाजार सीमित है।जिसके चलते उत्पादन लागत ज्यादा है । अगर कंज्यूमर बेस बडा होता तो भारतीय कंपनियाँ भी बडी होती, माल का लागत मूल्य भी कम होता और विश्व बाजार में भारतीय माल की तूती बोलती।
     आज के अर्थ शास्त्र का तकाजा यही है कि भारतीय उधोगपति डाईवर्सिटी के सिध्दांत को अमेरिका की तरह अपनाकर दलितों को भी पूंजी निर्माण के क्षेत्र में भागीदारी प्रदान करे तथा जो लडाई दलित और आदिवासी लड रहे हैं, उसे उधोगपति लडे।इसी मे उनकी कामयाबी का राज छिपा है । इसी से दलितों को भी फायदा होगा और देश को भी।
राजेश कुमार
तहसीलदार बिजनौर
जाग्रति फाउंडेशन
जे. जे. पुरम, सहारनपुर, 
चलो, शिक्षा को अपना मिशन बनाये ।

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